Sunday, October 25, 2009

मनुष्य

ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति मनुष्य
कही खो गया है
अपने ही दिए नामो में
इस कदर उलझा हुआ है
खीझ ,बैचेनी ,तमतमाहट
और रेत तन जो रह गया है

विश्व की सुन्दरता ,
प्राक्रतिक सुषमा अब मन को
लुभाती नही है

भावो की मृदुलता
मन की कोमलता
पागलो की निशानी है

ये भाव नैतिकता की कहानी है
नैतिकता गए बीते जमाने
की बातें है

२१वी सदी फास्ट ट्रेक ज़माना
सीखो दुसरो की जेब से कैसे
है पैसे आना

3 comments:

premlatapandey said...

मानवता !


हाय री मानवता !
तू कहां खो गयी ?
कितना ढ़ूंढ़ा तुझे ?
पर तू तो गुम हो गयी।
तुझे ढ़ूंढ़ते ढ़ूंढते
तुझ विहीन घूमते घूमते
साक्षात्कार हुआ
झूठ से,
लूट से,
भ्रष्टाचार से,
अत्याचार से,
पर तू तो खो गयी,
मानो स्वर्ग की हो गयी।
छोड़ गयी अपनी देह,
जिसमें नहीं है बिल्कुल नेह।
खोखला आकार छोड़ गयी है,
सबको स्वार्थ की ओर मोड़ गयी है।
इतनी रूठने की क्या पड़ी थी ?
तू तो संसार की जड़ी थी।
क्यों विलीन हो गयी ?
सदा के लिए खो गयी ?
हो सके तो फिर आना,
दुनिया को फिर से सजाना,
तुझ बिन गिरे हुओं को ख़ुद उठाना,
पुनः नया संसार बनाना।

M VERMA said...

२१वी सदी फास्ट ट्रेक ज़माना
सीखो दुसरो की जेब से कैसे
है पैसे आना
इस फास्ट ट्रेक ज़माने में हम भी तो फास्ट हो गये है इतने कि शायद खुद की गति पर भी नियंत्रण नही रह गया है
बहुत सुन्दर रचना

के सी said...

बढ़िया कविता, भौतिकवाद और मनुष्यता के बीच नई रोशनी की तलाश